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आयुर्वेद’ अत्यंत प्राचीन शास्त्र है ! वस्तुत: प्राचीन आचार्यो ने इसे ‘शाश्वत’ कहा है और उसके लिए तीन अकाट्य युक्तियाँ दी है —

‘सोय्मायुर्वेदा: शाश्वतो निर्दिश्यते, अनादित्वात,
स्वाभावान्स्सिध्वलाक्शंत्वात, भाव्स्वभाव्नित्वात, !’
अर्थात आयु और उसका वेद (ज्ञान) अनादि होने से आयुर्वेद अनादि है क्योंकि आत्मा के समान सृष्टि भी अनादि है ! ‘आदिनार्सत्यात्मन: क्षेत्र-पारम्पर्येम्नादिकम’ ! सृष्टि आरम्भ से ही जड़ और चेतन अथवा निरिन्द्रिये और सेन्द्रिये , दो प्रकार की रही है ! इन दोनों का ही सम्बन्ध काल या समय से रहता है किन्तु चेतन पदार्थ में जब तक चेतना का अनुबंध रहता है उस अवधी को आयु कहते है ! यथा —-

शरीरेन्द्रियेस्त्वात्म्संयोगो धारी जीवितम !
नित्याग्श्वनुबंध्श्वा पर्यायेरयुरुच्य्ते !!
इस आयु सम्बन्धी प्रत्येक ज्ञेयविषयक ज्ञान को आयुर्वेद कहते है ! यथा —

हिताहित सुख दु:खामयुस्तस्य हिताहितम !
मानं च य्त्रोक्तामयुर्वेद: स उच्यते !!
मानव या प्राणीमात्र सृष्टि के आरम्भ से ही अपने हित या अहित का ज्ञान रखता आया है; अपनी आयु की वृद्धि और हानि करने वाली वस्तुओ का ज्ञान भी रखता आया है और उत्तरोत्तर नवीन-नवीन उपायों का अवलंबन या अनुसन्धान करता आया है ! इस प्रकार आयु और वेद दोनों सदैव रहे है और रहेंगे ! अत : आयुर्वेद नित्य है ! आयु के ऊपर हित या अहित प्रभाव डालने वाले संसार के जितने भी पदार्थ है उनके स्वभाव या गुण सदैव वही रहे है जो आज है और भविष्य मैं भी रहेंगे ! जैसे अग्नि में दाहकत्व, सदैव रहा है, है और रहेगा ! उसके घातक प्रभाव से बचने और हितकारक प्रभाव के उपयोग के लिए प्राणी सदैव उन्नत रहा है, है और रहेगा !!